जनाब दिनेश साहब, आपकी ये कोशिश वाकई काबिले तारीफ़ है, आप जैसे चंद लोग ही ग़ज़ल जैसी इस खुशनुमा बयार को बिखेरने में जुटे हैं,तो ऐसा लगता है कि ग़ज़ल फिर से अपनी दीवानगी अपने शबाब का अपना पुराना मेयार ज़रूर हासिल कर लेगी।
बहोत सारी शुभकामनाओं के साथ
मुसाफिर
विलास पंडित
Wednesday, March 3, 2010
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